मैं लकड़ी का एक टुकड़ा
मैं टुकड़ा था उस रोटी का
जो कुत्ता भी ना सुंगे
टुकड़ा था उस कागज़ का
जो पढ़े बिना कोई फाड़ दिए
खामोशी से देख रहा था
तीखे बोल झेल रहा था
चट्टानों में राह बनाता
तुफानो से खेल रहा था
हर अश्रु बून्द को साथ बटोरे
सृजनकार को कोस रहा था
कोई भी उठ कर आता था
ठोकर दे कर जाता था
प्रतिदिन मेरा मजाक बनाना
कितनो का तो शौक बना था
इन्हें अपने कुछभी काम नही थे
स्वप्न वृक्ष के ये लकड़हारे
पर मैं भी अमर की वेल बना
सबको रौन्ध कर आगे बढ़ा
समय ने अब करवट बदली थी
फिसलती रेत अब धूप बनी थी
मैं प्रतिपल इतना बढ़ता था
की खुदको ही ना पहेचानु
मैं बहता था हो बेकाबू
मेरी शिरकत से प्रलय बने
सब देख रहे थे अचरज से
मेरी आंधियो से दृढ़ मैत्री
सब नाप रहे थे उचाई
पता किसे थी गहराई?!
मैं समुद्र का बहता हिमनग
श्वेत वस्त्र से लिपटा था
मैं महाभारत का भीष्म बना
प्रतिज्ञा बनी थी अर्धांगिनी
~ अचलेय
( २-जनवरी-२०१८ )