Sunday, 5 December 2021

चौराहा

अस्तित्व, कर्तव्य, हेतु और गंतव्य

इस चौराहे पर आ खड़ा था

खयालो की भीड़ में उलझ गया था

कहाँ जाना है भूल चुका था

लाल, पीली और हरी 

रोशनी में गुम हुआ था

खामखाँ लड़ रहा था

मेरे झूठे अहंकार से

किसी सस्ती किताब में

जो पढ़ बैठा था 

की जीवन एक संघर्ष है

और उसे सच मान कर

व्यर्थ ही निरंतर 

उस चौराहे पर, कर रहा था 

संघर्ष अपने जीवन से..

कई और भी थे, मेरे साथ वहाँ

अपने कटोरे ले कर खड़े

अपने सपनो की भीख मांगने

उस उष्ण, पसीने सूखाने 

वाली सूखी दोपहर में

तभी मेरी नजर पड़ी

सूरज को ढकने की

कोशिश करती हुई एक चील पर..

जिसे देखकर मेरे मन में

एक सवाल पर फैलाने लगा..

"क्या ताकद थी ? उसके पंखों में 

इतनी ऊंची उड़ान भरने की ?"

धूल और मिट्टी उड़ाती 

शुष्क हवा बोली,

"वो तो हुई सवार मुझपर

इसलिये गगन भेद रही है"

मैंने प्रतिप्रश्न किया,

" तुम तो नही दिखती

किसीको अपने आँखोंसे !

फिर बिन देखे तेरे वजूद को

हुई सवार वो तुमपे कैसे ? "

हँसते हुए हवा बोली

" मूढ़ ही है मेरा वजूद तलाशते, 

यदि मुझे महसूस करना चाहे मन 

तो गलत चौराहे पर खड़े हो तुम ! "

अधीर होकर मैं बोला

" फिर पता बताओ उस चौराहे का

जहा जाकर तुम्हे महसूस करू.."

मुस्कुराकर वो बोली,

" मैं अक्सर गुज़रती हुँ 

उस चौराहे पर से जहाँ

' श्रद्धा, विश्वास, समर्पण और धैर्य ' मिले !"


~ अचलेय








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