कागज़ की कश्ति पर
भीगी जो स्याही थी
ओझल से लफ़ज़ोने
खुदको मिटाया था
तैराक थी कश्ति
पानी में थी मस्ती
बारिश के बूंदों ने
बादल रुलाए थे
हम थे किनारे पे
खुदको संवारे थे
मुठ्ठी में कैद कर
कितने तूफानों को
उस जालिमसी रात ने
चाँद भी निगला था
तारो को बादलों ने
यूंही उलझाया था
स्याही भी काली थी
रात भी काली थी
उसमें उकेरी वो
कहानी भी काली थी
अब पूछो ना कुछ
मुझको कहानी तुम
कश्ति तो है डूबी
कर मटमैला पानी
~ अचलेय
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