Saturday, 5 October 2024

कहानी

 कागज़ की कश्ति पर 

भीगी जो स्याही थी

ओझल से लफ़ज़ोने 

खुदको मिटाया था


तैराक थी कश्ति

पानी में थी मस्ती

बारिश के बूंदों ने

बादल रुलाए थे


हम थे किनारे पे

खुदको संवारे थे

मुठ्ठी में कैद कर 

कितने तूफानों को


उस जालिमसी रात ने

चाँद भी निगला था

तारो को बादलों ने

यूंही उलझाया था


स्याही भी काली थी

रात भी काली थी

उसमें उकेरी वो 

कहानी भी काली थी


अब पूछो ना कुछ

मुझको कहानी तुम

कश्ति तो है डूबी

कर मटमैला पानी


~ अचलेय




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