Thursday, 14 November 2024

शालिग्राम

 धोंडा ओबड धोबड 

होतो गोल गुळगुळीत 

परी नदीत बुडणे 

आले पाहिजे नशिबी 


नदीचा तो तळ 

तेथे प्रवाह अथांग 

ध्यान लागता धोंड्यास 

होतो त्याचा शालिग्राम 


धार झाल्यास बोथट 

कडा झिजल्या तरच 

अहंकार जिरल्यास 

अन स्वार्थ विरल्यास 


होतो तुकतुकीत गोल

मिळतो त्याला फार मोल 

परी नसते त्याचे त्याला 

न घेणे, न देणे


                       ~ अचलेय

Saturday, 26 October 2024

किनारा

काळ हा दीपमाळ जपतो 

कंदिले झुलती नभी 

चांदण्या शोधी शशी

अन सांज ही झाली अशी


मीच माझी वाट बघण्या 

ठाकलो सागर किनारी 

हा किनारा हीच वाळू 

परतणारा हाच वारू


शांत लाटा उष्णश्या 

बिलगती माझ्या पदा 

गुह्य त्या सागर तळीचे 

येऊन सांगी मला


शांतता माझ्यातली मग 

हृदय स्पंदन ऐकवी 

सागराचे गीत चाले 

ताल ठोके अंतरी


रम्यश्या त्या ठिकाणी 

लांब कोणी दिसले मला

नजीक जाता आले कळूनी 

भेटीस आलो मी मला 


                       ~ अचलेय

Saturday, 5 October 2024

कहानी

 कागज़ की कश्ति पर 

भीगी जो स्याही थी

ओझल से लफ़ज़ोने 

खुदको मिटाया था


तैराक थी कश्ति

पानी में थी मस्ती

बारिश के बूंदों ने

बादल रुलाए थे


हम थे किनारे पे

खुदको संवारे थे

मुठ्ठी में कैद कर 

कितने तूफानों को


उस जालिमसी रात ने

चाँद भी निगला था

तारो को बादलों ने

यूंही उलझाया था


स्याही भी काली थी

रात भी काली थी

उसमें उकेरी वो 

कहानी भी काली थी


अब पूछो ना कुछ

मुझको कहानी तुम

कश्ति तो है डूबी

कर मटमैला पानी


~ अचलेय




Friday, 23 February 2024

पूर्ण तू तयार है...

एक था निकल पड़ा

एक था जकड़ चुका

एक ने निगल लिया

एक ने उगल दिया


मैं खड़ा तू खड़ा

विचारो का बड़ा घड़ा

तू उठा... तू उठा

हम से ना ये उठ रहा


चल झांक कर यूं देख ले

भरा दिखा तो छोड़ दे

जकड़ पकड़ उगल निगलते

वो सदा भरा रहे


यदि ध्यान से झांकले 

तो सब दिखे खोखला 

आज तू बता ही दे

की पूर्ण तू तयार है


असीम शक्ति स्रोत को

महाबली तू जान ले

उठ खड़ा हो बाण ले

प्रतिकार की ढाल ले

गुलामी न्यून भाव की 

मुष्ठी से मरोड़ दे


चक्रव्यूह भेद कर

चक्रधर को स्वार्घ्य दे

पार्थरथी सारथी को

स्वत्व तू सौप दे


हरि शरण जो गया

वही चढ़ा सदा शिखर

आत्मबल जान कर

हिमश्वेत सा गया निखर


जकड़ पकड़ उगल निगलना 

छोड़ दे आज से

दहाड़ कर ये बता..

की पूर्ण तू तयार है

पूर्ण तू तयार है...


~ अचलेय

(२४-०२-२४)

Friday, 20 October 2023

स्मरण असू दे

 साक्ष तुझी आहे

आणि मेघ दाटले

कृष्ण आहे गजबजलेले

धवल का रीते ?


प्रीत क्षीण ओढ्या वाणी

गितसे जणू 

कोरड्या किनारी शब्द

अंकुरे कुठून ?


मिथ्य मोजण्यासी रचल्या 

कोसाच्या शीळा

शेंदुरात तुजला बघणे

भ्रांत का म्हणून ?


माझे माझे सांगून सारे

तुझे लाटले

अहंच्या नादामध्ये 

तत्व लोटले


पुरे दाटणे हे आता

पूर येऊदे

मळभ हटवूनी आम्हाला

तेज स्नान दे


क्षीरसागरी तू आम्हा

स्वैर क्रिडू दे

नादरंगी रंगून आम्हा

टाळ पिटू दे


पांडुरंग विठू माउली

विटेवर उभी

कटिबध्द पार करण्या

स्मरण असू दे


~ अचलेय

(२१.१०.२३)

Monday, 29 May 2023

सावरकर

 धोम गोल एक बोल

धूम मिश्रित अग्निगोल

रंजीत रक्त, बूंद स्वेद

उष्ण खून झर झर झर..


युद्ध था समुद्र से

चीरता निकल गया

युद्ध था वेदना से

अगस्त्य सा निगल गया


अग्नि बरसाती स्याही से

अविरत लिखता गया

स्याही ना मिली थी जब 

तो कोयले से लिख लिया


धोम गोल एक बोल

धूम मिश्रित अग्निगोल

रंजीत रक्त, बूंद स्वेद

उष्ण खून झर झर झर..


तेरे शब्दों के घावों से

क्रांति का उठा तूफान

लाल लाल जख्म देख

खौलता उठा युवां


सहस्र पांडव लड़ पड़ा

देख पांचजन्य तेरे हाथ में 

और जली बड़ी चिता

अधम के वस्त्र की


धोम गोल एक बोल

धूम मिश्रित अग्निगोल

रंजीत रक्त, बूंद स्वेद

उष्ण खून झर झर झर..


~ अचलेय 



Friday, 28 April 2023

ऐसे वीर बाजीराव

है अदब नही सवाल

जोश है नसोमे स्वार

आखोमे जिनके अंगार

ऐसे वीर बाजीराव

  

  अश्वपे है वो सवार

  हाथमे है ढाल बाण

  रणदुर्गपे है निशान

  हर रोम है वीरगान


चलती जब उनकी तलवार

सप्त सागर बनते है

जब करते वो प्रहार

भूगर्भतक हिलता है


  केसरीकि गर्जना 

  संतोकी अर्चना

  कृष्णकी योजनासॆ 

  बनते है बाजीराव


सहस्र रीति एक नीति

है श्रीमंत युद्धनिती

अति तीक्श्ण बुद्धिसे

पुर्णत्व उन्हे प्राप्त है


  ऐसे अजिंक्य योद्धाको 

  करता केत है प्रणाम

  दुश्मन डरसे जिन्हे

  झुककर करते सलाम


ऐसे वीर बाजीराव 

ऐसे वीर बाजीराव

                 

               - अचलेय 

               ( मैं २०१२ )

Tuesday, 7 March 2023

नारी

 सृजन के संकल्परथ को

हांकने का तू सामर्थ्य है

प्रेम का अमृतकलश

है आंख में तेरे बसा

अनंत बल सामर्थ्य का

साकार रूप, तू ही है 

शिव को भी संपूर्ण करती

अर्धांगिनी तू शक्ति है

तुझे फूल मै अर्पण करूं तो

फूलों की शोभा बढ़े 

तू प्रेम है, तू शक्ति है

तू विश्वजननी नारी है


                          ~ अचलेय 

                        (८ मार्च २०२३)



Sunday, 5 December 2021

चौराहा

अस्तित्व, कर्तव्य, हेतु और गंतव्य

इस चौराहे पर आ खड़ा था

खयालो की भीड़ में उलझ गया था

कहाँ जाना है भूल चुका था

लाल, पीली और हरी 

रोशनी में गुम हुआ था

खामखाँ लड़ रहा था

मेरे झूठे अहंकार से

किसी सस्ती किताब में

जो पढ़ बैठा था 

की जीवन एक संघर्ष है

और उसे सच मान कर

व्यर्थ ही निरंतर 

उस चौराहे पर, कर रहा था 

संघर्ष अपने जीवन से..

कई और भी थे, मेरे साथ वहाँ

अपने कटोरे ले कर खड़े

अपने सपनो की भीख मांगने

उस उष्ण, पसीने सूखाने 

वाली सूखी दोपहर में

तभी मेरी नजर पड़ी

सूरज को ढकने की

कोशिश करती हुई एक चील पर..

जिसे देखकर मेरे मन में

एक सवाल पर फैलाने लगा..

"क्या ताकद थी ? उसके पंखों में 

इतनी ऊंची उड़ान भरने की ?"

धूल और मिट्टी उड़ाती 

शुष्क हवा बोली,

"वो तो हुई सवार मुझपर

इसलिये गगन भेद रही है"

मैंने प्रतिप्रश्न किया,

" तुम तो नही दिखती

किसीको अपने आँखोंसे !

फिर बिन देखे तेरे वजूद को

हुई सवार वो तुमपे कैसे ? "

हँसते हुए हवा बोली

" मूढ़ ही है मेरा वजूद तलाशते, 

यदि मुझे महसूस करना चाहे मन 

तो गलत चौराहे पर खड़े हो तुम ! "

अधीर होकर मैं बोला

" फिर पता बताओ उस चौराहे का

जहा जाकर तुम्हे महसूस करू.."

मुस्कुराकर वो बोली,

" मैं अक्सर गुज़रती हुँ 

उस चौराहे पर से जहाँ

' श्रद्धा, विश्वास, समर्पण और धैर्य ' मिले !"


~ अचलेय








Wednesday, 9 December 2020

म्हणून, तुझ्या प्रेमात पडायचं आहे..

 एकाट ओल्या निर्जन काळ्या 

उकार किंवा वेलांटी सारख्या रस्त्यावरून

जिप्सी पळवत संध्येचा पाठलाग करत

गुलमोहराचा सडा उधळत 

किर्रर्र रानाच्या कुशीतलं 

माझं टुमदार घर गाठायचंय

कारण तिथे तू माझी 

वाट पाहत असशील..

कदाचित त्या गुलमोहरी

रस्त्याच्या टोकावर 

क्षितिजाची दुलई ओढणाऱ्या

सूर्याचं आणि त्या दृश्याच

चित्र रेखाटत बसली असशील..

तू रेखाटलेलं ते चित्र मला बघायचंय

आणि म्हणून मला 

तुझ्या प्रेमात पडायचंय

पक्ष्यांच्या चिवचिवाटात

गर्द राईत पाण्यावर

विसावणार्या तहानलेल्या

तांबूस रवी किरणांचे 

तुझ्या चेहेऱ्यावर पडलेले प्रतिबिंब 

तळ्याला मिठी मारणाऱ्या

झाडाच्या फांदीवर बसून

तासंतास तुझ्याशी गप्पा मारताना

पायांना स्पर्शून जाणाऱ्या 

त्या संथ गार पाण्यात पडलेल्या 

तुझ्या प्रतिबिंबात शोधायचंय

आणि म्हणून मला 

तुझ्या प्रेमात पडायचंय

कैक मैल चालून देखील

अपूर्ण राहिलेल्या तुझ्या गोष्टी

गरम कॉफीची चुस्की घेत घेत

ऐकायच्या आहेत

तुझ्या बालपणीच्या गमती जमती

जाणून घ्यायच्या आहेत

तुझ्या पहिल्या प्रेमाचा किस्सा

पण ऐकायचा आहे

तू रेखाटलेल्या चित्रांना निरखताना

त्यात दडलेल्या माझ्या कविता 

शोधायच्या आहेत

आणि म्हणून मला

तुझ्या प्रेमात पडायचंय.

रात्री निजताना 

माझ्या छातीचा किनारा 

व्यापून टाकणारा तुझा

मध्य रात्रीहून गडद केश सागर.

आणि त्या लहरींतून 

दरवळणारा गंध हा

त्या सागराला आटोक्यात 

आणण्यासाठी बांधलेल्या

मोगऱ्याची साखळी तुटल्याने

त्या सागरात खोल बुडाला आहे 

अश्या वेळी तो केसांत 

गुरफटलेला गजरा 

मला मोकळा करायचा आहे

आणि म्हणून मला

तुझ्या प्रेमात पडायचंय

        

                     ~ अचलेय

Monday, 23 December 2019

निशिगंध

विरलेल्या दिवसामध्ये
गंध कालचा होता
निशिगंध बहरला होता
रजनीत हरवला होता
थंडगार त्या वाऱ्याने
गारठून भावना गेल्या
पांघरून शब्द भोवती
मी श्वास घेतला होता
प्रत्येक नकारा वेळी
रात्र थाटली होती
तरी चंद्र मागण्या मी
सदैव जागा होतो
चंद्र पाहण्या साठी
मी हिंदोळ्यावर रमलो
प्रतिबिंब ज्या तळ्यात
तो वर्षाव कालचा होता
रात्रीच्या ललाटी
हात पोहोचले जेव्हा
तो धूसर धवल मेघात
नाहक गुरफटला होता
जरी चंद्र लाभणे नाही
तरी निशिगंध बहरणे आहे
ही रात्र दाटणे आहे
अन गंध हरवणे आहे

                              ~ अचलेय

Friday, 29 November 2019

गुमशुदा

मैं काल का श्रृंगार हूँ
मैं शोक जो वीभत्स हूँ
मैं काम का तेज हूँ
मैं भय हूँ अंधकार सा
जटिल से समाज में
मैं प्रीत का पुजारी हूँ
असत्य सत्य सही गलत
मैं नग्न एक दशा जो हूँ
मैं आदिम की भूख हूँ
गीदड़ों का झुंड हूँ
सबमे जो मौजूद हूँ
मृत्यु सा अटल हूँ मैं
मासिक धर्म में बहे
खून का मैं बून्द हूँ
शिशु का स्तनपान मैं
अग्नि से पवित्र हूँ
भीड़ से दूर हूँ
भीड़ में हूँ छुपा
इस डर के गुफामें मैं
हूँ अनंत काल से
अस्तित्व मेरा है मगर
पहचान है गुमशुदा

                     ~ अचलेय
                      ( ६ \ ११ \ १९ )


Thursday, 21 November 2019

हे मना...

रित्या झालेल्या भांड्यात
जसा गोरसाचा थेंब
ओल्या झालेल्या पिलाला
पंख मायेची ती उब
कासावल्या भ्रमराला
कंठी मधाचा तो थेंब
माझ्या व्याकुळ मनाला
आहे कवितांची भेट
अधिरल्या मना साठी
शब्द गुंफते दावण
सुसाटल्या विचारांनी
नभ आणले दाटून
कडाडल्या विजेमध्ये
आहे वादळाचे बीज
कारे जागवतो मला
अंधारली रात निज
बघ चांदण्यांची वेल
तुटला तारा बघ वेच
बाई किती मी भागले
आता तरी रे तू झोप
आता नको ती रिमझिम
नको वारा थंडगार
नको नभांचे दाटणे
नको शब्दांचे गुंफणे
रिता असला जरी तू
काळजास कवटाळील
तू निजरे जरासा
तुही आहे थकलास

                 ~ अचलेय 

Friday, 24 May 2019

Athang

In the hope of dawn
Walking to the east
Left the warm bed
Abandoned the rest
Many sleeping now
Enjoying the dream
Dreaming while I walk
That's a fair scheme
For the morning's kiss
Broke up with the night
Never had I thought
Whether was it right
I reckon in Bodhi
Which lit million minds
Solitude is what
Shapes the thoughts and grinds
Walking along the river
I let the thoughts to pile
Don't ask me my dream
It's like the river Nile

                                          ~ Achaleya

Tuesday, 9 April 2019

भीमबेटका

ये बात है उस रात की
जो सर्द थी, वीरान थी

बादलों का शतरंज था
ये चाँद था उलझा हुआ

जमने लगा मेरा लहू
सांस जखड़ी वाष्पने

थी छुपी करके शरारत
मुठ्ठी में मेरे हरारत

ठंड जिस चट्टान का
मैंने लिया था आसरा

सदियो तक होंगे बसे
आर्ष कालीन वीर वहा

वाकिफ किया अतीत से
उस धवल गुफा चित्र ने

समय के प्राबल्य का
अहसास तब था हो गया

बूंद ढले, जो दरार से
गूंज उठे, उस शांति में

था उस विशाल शिल्प का
ध्वनि नाद मैंने सुन लिया

आदिम के समय से
पांडवोके काल तक

भैस के शिकार से
तपस्वियों के सिद्धि तक

सर्वत्र साक्षी उसकी थी
सर्वज्ञानी वो शिला

जुगनुओं को तलाशते
 मैं रातमें था चल पड़ा

हूँ निशाचर, था जगा
थी वो जगा भीमबेटका


                                  ~ अचलेय
                                   ( ९ अप्रेल २०१९ )

Friday, 5 April 2019

नसीहत

ये नसीहत है मेरी उससे  जो मेरा कल है, जो शायद कामियाब है; के किसी नाकामियाब को कामयाबी के नुस्खे और मशवरे ना देना.
ये तो सिर्फ वक्त की बात है, कल तुझे भी क्या पता था कि ये 
'आज ' तेरे कदमोमे था..!!

                              ~ अचलेय

ये उम्मीदे

उम्मीदे बर्दाश्त नहीं होती है
उम्मीदों पर खरा उतरना नही आता है
ये अलग बात है कि,
कोई हमसे उम्मीद नही रखता
यही उम्मीद करता हु कि,
 कोई तो उम्मीद रखे हमसे..
लेकिन फिर उन्हें
उम्मीदे बर्दाश्त नहीं होती है

                                   ~ अचलेय


तराशे पल

कुछ पल ऐसे भी जी रहा हूँ
जो मेरी कहानी को तराश रहे है
सब्र अब इतना करना है के
उन तराशे हुए पलो की बोरी
अपने किताबो के पन्नो में
अच्छेसे बो पाऊ
क्योकि बोरी में वो पल
मैं छुपाने के लिए नही
बल्कि बचाने के लिए
रख रहा हूँ.

                     ~ अचलेय

Saturday, 23 March 2019

ती एक कविता

त्या ग्रंथ सागरा काठी
ती एक कविता होती

ती नाव वाटली होती
तिचे शब्दच सागर होते

ती इतकी अथांग होती
मी त्यावर तरलो होतो

मज लाटांचे सामर्थ्य
तिचे आशय पुरवत होते

मी तिच्या भावनांमध्ये
नकळत भरकटलेलो

त्या प्रेम सागरामध्ये
नाहक फरफटलेलो

मी गुंतलोही तिच्यातच
अन भिजलोही तिच्यातच

खोल तिच्या तळात
बेधुंद बुडालो होतो

माझ्या प्रश्न शिंपल्यांना
तिचे किनारे होते

अन प्रश्नार्थक नजरेला
तिचे डोळे मिटणे होते

कळले मला जेव्हा ते
की काल्पनिक ती आहे

पापणीत वेचून मोती
मी निघून आलो वरती

 
                          ~ अचलेय

Saturday, 9 March 2019

क्षुधा

चांदण्यांच्या रोषणीने सागरी तळ गाठला
शिंपल्यातील सुप्त मोती त्यात न्हाऊ लागला

मोतीयाने चांदण्यांना स्नेह अंमळ धाडला
फेन जो लाटेतला हा स्नेह त्याने लाटला

ह्या लाटलेल्या रोषणीने अन किनारा गाठला
चाल अल्लड जणू मृग वनी, ती चालली पाण्यातुनी

चुंबीण्या ती पावले रोषणी सरसावली
साजणाची वाट आता क्षितिजही पाहत असे

सारण्या विराहास आता नक्षत्र बदलू लागले
पूर्तीण्या क्षुधेस आता चांदणे ही सांडले

रात्रीच्या पडद्यातूनी अन गलबते डोकावली
थंड त्या वाऱ्यामध्ये ती शीडही थरकापली

एकट्या चंद्रास ती चांदणी अन लाभली
एकट्या चंद्रास ती चांदणी अन लाभली


                                                   ~ अचलेय
                                              ( ४ सप्टेंबर २०१८ )



Tuesday, 5 February 2019

सैफरन

तेरा समर बड़ा
मुक़ाम बड़ा

तू ढीठ  रहे
तो तूफान बड़ा

समतल पे तो घास उगे
केसर उगता पहाड़ो पे

भट्टी से गुजरे तेरा लोहा
तो पिघलेगा और जमलेगा

न समशेर बनाना है आसान
न म्यान सजाना है आसान

यदि अंगारो पे चलना हो
धधकती आग दिलमें हो

जब अंधेरे से भिड़ना होगा
खुदहिको मशाल बनना होगा

आम उगाना चाहे तू
तिनके के बीज न बोना तू

समय बोया तूने तेरा
तो सोना भी कल उग जाएगा

                                   ~ अचलेय
                                      ( ३ फरवरी २०१९ )


Friday, 16 November 2018

भीष्म

अवहेलना के सागर में तैरता
मैं लकड़ी का एक टुकड़ा
मैं टुकड़ा था उस रोटी का 
जो कुत्ता भी ना सुंगे
टुकड़ा था उस कागज़ का
जो पढ़े बिना कोई फाड़ दिए
खामोशी से देख रहा था
तीखे बोल झेल रहा था
चट्टानों में राह बनाता
तुफानो से खेल रहा था
हर अश्रु बून्द को साथ बटोरे
सृजनकार को कोस रहा था
कोई भी उठ कर आता था
ठोकर दे कर जाता था
प्रतिदिन मेरा मजाक बनाना
कितनो का तो शौक बना था
इन्हें अपने कुछभी काम नही थे
स्वप्न वृक्ष के ये लकड़हारे
पर मैं भी अमर की वेल बना
सबको रौन्ध कर आगे बढ़ा
समय ने अब करवट बदली थी
फिसलती रेत अब धूप बनी थी
मैं प्रतिपल इतना बढ़ता था
की खुदको ही ना पहेचानु
मैं बहता था हो बेकाबू
मेरी शिरकत से प्रलय बने
सब देख रहे थे अचरज से
मेरी आंधियो से दृढ़ मैत्री
सब नाप रहे थे उचाई
पता किसे थी गहराई?!
मैं समुद्र का बहता हिमनग
श्वेत वस्त्र से लिपटा था
मैं महाभारत का भीष्म बना
प्रतिज्ञा बनी थी अर्धांगिनी

                          ~ अचलेय
                    ( २-जनवरी-२०१८ )
भीष्म

Sunday, 8 July 2018

काही निसटलेल्या कवितांबद्दल

लिहिण्यासाठी रात्रभर शब्द जमवत होतो
स्वप्नांसाठीचा राखीव वेळ त्यात गमवत होतो
शब्द वेचुनी मुठीमध्ये नोटिंग ऍप शोधत होतो
शब्दांची जागा ठरवण्याच्या भरात मूळ भावनाच विसरत होतो
त्यात काही व्हीआयपी शब्द रुसून निसटत होते
मग त्यांची शोधमोहीम मी गुगल वर घेत होतो
या सगळ्यात कीपॅड मात्र उगाच खरडत होतो
फोनच्या प्रकाशाने शेजारची झोप भरडत होतो
आज कदाचित माझी कविता माझ्यावर रुसली होती
प्रत्येक शब्दासाठी माझी कसोटी पाहत होती
डोळ्यामध्ये आता माझ्या झोप दाटली होती
शब्दांनी आज माझी मस्करी थाटली होती
माझी अधुरी कविता पूर्ण कधीना झाली
मला चकवा देऊन माहेरी निघून गेली

                                   ~ अचलेय
                                     (८-जुलै-२०१८ )




Monday, 7 May 2018

कधी डोळे मिटून चालून पहा

कधी डोळे मिटून चालून पहा
मान्य आहे तुम्ही थबकून चालाल
नको तिथे वळण घ्याल
वळणावरती सरळ जाल
नकळत कुणाला धक्का द्याल
कुणाचे खडे बोल ऐकाल
पण माफी मागून चालत राहाल
कुठे दगडावरती बोट ठेचाळाल
या मूर्खपणाला शिव्या द्याल
तरीपण कधी डोळे मिटून चालून पहा
मग तुम्ही कानांच्या आधीन व्हाल
सभोवतालच जग ऐकाल
गर्दी मध्ये गाड्यांचे आवाज
लांबून जवळ जवळून लांब
शेजारच्या जोडप्याचं गुलुगुलू ऐकाल
नळावरचं भांडण पण ऐकाल
कुणा छोटुल्याचा हट्ट ऐकाल
देवापुढले डीजे ऐकाल
आणि चौकात पोलिसाची
शिट्टी पण ऐकाल...
"ए हिरो, सिग्नल दिसत न्हाय?"
मग डोळे उघडून चालू लागाल
त्यापेक्षा कधी रानात डोळे मिटून पहा
इथे शुष्क पानांचा चरचराट ऐकाल
फळाफुलांचे गंध घ्याल
कधी तुम्ही मोगऱ्याच्या हद्दीत
तर कधी तुम्ही चाफ्याच्या सावलीत
पक्षांची किलबिल ऐकाल
ओढ्याची खळखळ ऐकाल
मनातल्या हाका ऐकाल
जागेपणीच स्वप्न पहाल
पण नकळत बाभूळीवर
पाय पण द्याल
अंधारले गुंते पण सोडवाल
अन बंद डोळ्यांनी जग पहाल
म्हणून म्हंटलं
कधी डोळे मिटून चालून 'पहा' !!!

                               ~ अचलेय
                               ( १८-एप्रिल-२०१८ )
कधी डोळे मिटून चालून पहा

Wednesday, 7 February 2018

एक जिप्सी मनातला

एक जिप्सी मनातला...
पावसाच्या सरींमध्ये
डबक्यातल पाणी छप छप उडवत
स्वतःच्या वाटचालीचे शिंतोडे,चिखलाचे डाग
पॅन्ट वर जमा करत चालला आहे
भिजलाय अगदी चिंब वगैरे..
मनात स्वप्न रंगावतोय स्ट्रॉंग कॉफीची
आणि त्या स्पेशल भेटीची
थंडीने कुडकूडतोय
थंड श्वास घेऊन गरम उच्छवास सोडतोय
उंच उंच सागाच्या, बांबूच्या झाडातली
निमुळती वाट पार करतोय
कानात गुंजणाऱ्या मंद सुरांना
त्या अरण्यात निसटून जाऊ देतोय
खिशातली ती गुलकंदी गोड चिठ्ठी भिजू नये
म्हणून एक हात खिशातच मुठ बांधून ठेवतोय
कडकडणाऱ्या विजांनी जरा थबकतोय
आणि मग पुन्हा चालू लागतोय
पाण्याचे ओघळ चष्म्याच्या काचांवर येत आहेत
गरम श्वासातल्या वाफा पण
काचेचा आश्रय घेत आहेत
अश्या वेळी दुसऱ्या हाताने ओघळ पुसतोय
आणि अंधुक झालेला रस्ता पुन्हा त्याला दिसतोय
मनातल्या मनात तो त्या रोस्ट केलेल्या
कॉफी बीन्स चा गंध आठवतोय..
अश्या वेळी हा गंध त्या मातीच्या गंधात मिसळतोय
कॉफी बनवणाऱ्या तिच्या मनात हा दरवळतोय..
आडोश्यात असून सुध्दा तिला चिंब भिजवतोय
खिशातल्या चिठ्ठीवर अनेक वळ उमटले आहेत
आणि त्यात अनेक वचने मात्र नाहकच मिटली आहेत
एक जिप्सी मनातला स्वप्नांच्या रानात भटकतोय
प्रेमाच्या स्वप्नसरीने चिंब चिंब भिजतोय...!

                                         – अचलेय
                                         (0८-जानेवारी-२०१८)
                       
             

Monday, 18 December 2017

रिपुदमन

राहपे तू चल पड़ा है
खुदसेही तू लड़ पड़ा है
कौम ने कसी हुई जो
लौह की है श्रृंखला
हथौड़ी लेके आज मनुज
तुझको है वो तोडना
शंखनाद करले तू
दे चुनौती युद्ध की
कसदे ज़ीन अश्वपे
खड्ग अपने तेज कर
खुदको अब तू जान ले
खुदको सौप दे ईमान
भीतरी चिंगारियों को
अग्नि का स्वरूप दे
इसी धधकते अग्नि का
खुदको दे तू ईनाम
डर ही तेरा शत्रु है
वही तो आज दर पे है
रक्त स्वेद से पली
बाढ़ में कर रिपुदमन
ऐसी उँची उड़ान ले
विंध्य की नजर उठे
इतना तू विक्राल बन
अगस्त्य भी न पी सके
इतना तू मजबूत बन
काल ना जकड़ सके
इतना तू तेज बन
काल ना पकड़ सके
अभी लक्ष है अंधेरोमे
अपरिचित परिवेश में
ध्येय तो है धुंधला
समीप जा कर पाना है

                     – अचलेय

Saturday, 2 December 2017

दसरा सकाळ



    एक अशीच सकाळ, सप्टेंबर महिना. सकाळी स्नान सुश्रूषा आटोपून नाटकाच्या तालमी साठी निघालो होतो. माझं राहणं काही दिवसांसाठी माझ्या आत्ये भावा कडे आंबेगावात होतं. गाडीवरून जुजबी कापड झटकून मी मुख्य रस्त्याकडे निघालो होतो. मुख्य रस्ता आणि आमचं घर यांना जोडणारा रस्ता हा सिंहगड कॉलेज च्या कॅम्पस मधून जाणारा होता. तो पण बरोब्बर कॉलेज च्या हद्दीमध्ये सुदृढ होता आणि ही हद्द संपल्यावर पुढे अगदीच खडतर होता. येथे कधी काळी चांगला रस्ता असावा पण त्याला गाडण्यासाठीच जणू आंबेगाव ग्रामपंचायतीने त्यावर दगड, माती, मुरूम यांचा बिछाना अंथरला असावा. तर अश्या या रस्त्यावर धूळ उडवत जाणाऱ्या गाड्यांमधून माझी दुचाकी मी खड्डे चुकवायचा प्रयत्न करत, कशीतरी रेटत आणि धुळीपासून वाचण्यासाठी डोळे मिचमीचात मी पुढे जात होतो. कॉलेज हद्दीच्या मी १०० मीटर पुढे आलो असेल तेवढ्यात रस्त्याच्या कडेने जाणाऱ्या एका आजोबांनी मला हाक दिली आणि हात दाखवला. तसा मी गाडी थांबवली आणि त्यांच्याकडे पाहू लागलो तर ते म्हणाले, " मला मेन रोड पर्यंत सोडता का हो ? तिकडे मला टमटम मिळेल. पायी चालणं जरा जीवावर आलंय."
मी म्हंटलं," अहो बसा की आजोबा त्यात काय?चला कुठे जायचंय तुम्हाला ?"
तर ते म्हणाले,"मला शंकर महाराज मठात जायचं होतं."
त्यावर मी त्यांना म्हंटलं," अहो मला त्याच area मध्ये जायचं आहे. तर मी तुम्हाला KK Market पर्यंत सोडू शकतो."
ते म्हणाले,"ठीक आहे"  
         आणि आम्ही निघालो. तसा मी कोणावरही डोळे झाकून विश्वास ठेवणार्यातला नाही. म्हणून हा मनुष्य माझ्या बॅग ची चेन तर नाही ना उघडत आहे म्हणून side mirror मधून मी त्यांच्याकडे नजर टाकली तर मला आजोबांचा चेहेरा दिसत होता. आजोबांनी दोन भुवयांच्या मध्यभागी अष्ठगंधाचा टिळा लावला होता. त्यांचे काळी झाक असलेले पांढरे केस त्यांनी तेल लावून चापून चोपून लावले होते. ओठांवर स्मित हास्य आणि त्यात त्यांचे लाल किनार असलेले सुबक दात दिसत होते. कदाचित आबांना काथ चुन्याचे पान खाण्याची सवय असावी. डोळ्यावर मेटल च्या दांडयांचा चौकोनी चष्मा आणि Nose-pad खराब झाल्या मुळे असावं किंवा काय असावं पण दोन काचांना जोडणाऱ्या दांडीवर पांढऱ्या सुती धाग्याने लपेटलेले होते. कधी काळी या फ्रेम ला सोनेरी मुलामा दिला होता अशी ती फ्रेम होतीअंगावर सफेद बुशकोट आणि हातात एक टिफिन बॅग असा सगळा त्यांचा पेहेराव होताएकूणच कृष्ण वर्ण असलेला हा देह सत्तर पंचाहत्तरीतला असावा असा मी अंदाज लावलामी आरश्यातून त्यांना न्याहाळतोय हे लक्षात आल्यावर त्यांनी बोलायला सुरुवात केली.
"तुम्ही काय करता ? नोकरीला आहात का ?"
"अहो नाही, सध्या मी अभिनय करतो. त्याच्याच तालमी साठी तिकडे जातोय.तुम्ही कुठे निघालात? दर्शनाला का ?"
"हो दर्शन तर घ्यायचेच आहे.. आपलं चप्पल स्टँड आहे तिथे.. ३० वर्ष झालीत चालवतोय मी.. आज दसरा आहे ना.. गर्दी असेल आज म्हणून जरा लौकरच निघालोय."
मग मला साक्षात्कार झाला की आज बहुतेक सर्व गाड्या स्वच्छ धुतलेल्या दिसत होत्या आणि अनेक गाड्यांवर झेंडूचे पिवळे हार चढले होते. तोच विचार मी करत होतो की आज रस्त्याच्या कडेला फुलांचे स्टॉल का लागले आहेत? आणि मग मला हे पण आठवलं की मला कालच आईने उद्या दसरा असल्याचं सांगितलं होतं. मी हा असा वेंधळा आहे. असो, तर मी आजोबांशी बोलू लागलो,"काय म्हंटलं तुम्ही चप्पल स्टँड काय?"
"अहो आपलं चप्पल स्टँड आहे म्हंटलं मी! आज गर्दी असेल ना मंदिरात..म्हणून लौकर जावं म्हंटलं."
    चप्पल स्टँड नाव ऐकल्यावर माझं लक्ष आजोबांच्या पांढऱ्या बुशकोटात लपलेल्या खाकी शर्टकडे गेलं. आजोबांनी गणवेश खराब होऊ नये म्हणून पांढरा शर्ट त्यावर चढवला होता कदाचित.मला त्यांच्या त्या निरागस चेहेऱ्या कडे बघून उगाच माझ्या आजोबांची आठवण झाली आणि मग त्यांच्याबद्दल मनात एक soft corner निर्माण झालामी पुन्हा एकदा बोलायला सुरुवात केली," अच्छा अच्छा.. छान छान.. या वयात किती कष्ट घेता तुम्ही आजोबा ?"
"अहो कष्ट बिष्ट काही नाही. घरी करमत नाही म्हणून जातो. देवाच्या कृपेने कसं सगळं सुखवस्तू लाभलंय मला. एक मुलगा आहे आणि एक मुलगी आहे. मुलाने ITI करून छान कंपनीत नोकरी मिळवली आहे. आधी आम्ही इकडेच राहायचो बालाजी नगर मध्ये मठाच्या जवळ. पण तेव्हा कसं भाड्याची खोली होती. आता मुलगा कमवता झाल्यावर त्याने इथे स्वतःचा रूम किचन फ्लॅट घेतलाय वर्षां आधी.मुलाला एक मुलगा एक मुलगी आहे. हो आणि मुलीला पण एक मुलगा एक मुलगी आहे. जावई चांगला सज्जन माणूस आहे. आणि हो, माझी चारही नातवंड इंग्रजी शाळेत शिकतात बरं!  सगळी काशी त्याची कृपा आहे. तो वरून बघत असतो हो.आपण आपलं काम जर सचोटीने करत असलो तर तो पण आपल्याला चांगलं आयुष्य देतो.माझं आयुष्य हे असं लोकांच्या चपला-जोडे मोजण्यात आणि वेचण्यात गेले तर त्यानेही माझ्या आयुष्याच्या उत्तरार्धात मला हे अशे सुखी क्षण वेचायला दिले आहेत."
    खरच आयुष्यभर लोकांच्या चपलांवरच्या धुळीने आपले हात माखून घेणाऱ्या त्या आजोबांचे हृदय हे देवळाच्या गाभाऱ्या पेक्षा मला जास्त पवित्र वाटत होते.लोकांचे देह देवळात आणि चित्त खेटरात होऊ नये म्हणून स्वतःचे चित्त त्यांच्या खेटरात गुंतवणाऱ्या त्या आजोबांचे मला फारच कौतुक वाटत होते. मी त्यांना विचारलं," काहो पण मठ वाले किती पैसे देतात तुम्हाला ?"
"अहो, तशी पाहता मला आता पैश्याची काहीच आवश्यकता आणि कमवण्याची इच्छा नाही. मुलगा चांगला कमवतो माझा. तरीपण स्टँड समोरच्या डब्यात लोकं स्वेच्छेने जे काही पैसे टाकतात त्यातला एक वाटा मला मिळतो. मी तो वाटा माझ्या नातवंडांच्या शिक्षणासाठी माझ्या मुलाला आणि मुलीला देतो. आमच्या मालकीण बाईंना वैकुंठात जाऊन आता एक तप उलटलंय. तिच्या नशिबी एकाही नातवंडाचं सुख नाही आलं. ती जर आज असती तर तिने पण मला कपडे आणि खेळण्यांपेक्षा, शिक्षणावर खर्च करण्याचा सल्ला दिला असता.चला मी काय बोलत बसलो.. आला KK Market चा सिग्नल. चला मी इथेच उतरतो." आणि मी गाडी रस्त्याच्या बाजूला घेतली.गाडीवरून टूमकिनी उतरून आजोबा पुन्हा म्हणाले," या बरं तुम्ही नक्की वेळ मिळाला की दर्शनाला. आज दसरा आहे !" "हो हो येतो नक्की" "चला धन्यवाद. राम राम.."
"अहो धन्यवाद काय.. चला bye आणि happy dasara"
आजोबा गालातल्या गालात गोड हसले आणि आपल्या वाटेला मार्गस्थ झाले. मी बराच वेळ त्या पाठमोऱ्या आकृतीकडे बघत होतो. काही लोक हे असे एकदाच भेटतात. पुन्हा कधी भेटण्यासाठी, चार वाक्यातच भलं मोठं तत्त्वज्ञान सांगून जातात आणि तेवढ्यातच आपल्या हृदयात आपली एक जागा ही अशी पक्की करून जातात.


                                                               नचिकेत अभय गद्रे कृत .  

शालिग्राम

 धोंडा ओबड धोबड  होतो गोल गुळगुळीत  परी नदीत बुडणे  आले पाहिजे नशिबी  नदीचा तो तळ  तेथे प्रवाह अथांग  ध्यान लागता धोंड्यास  होतो त्याचा शालि...